वारदात से पूर्व जब शीबा कार सीख रही थी तो उसके मोबाइल पर बार-बार सलमान की कॉल आ रही थी। इस दौरान दो बार उसके पिता ने भी शीबा के मोबाइल पर कॉल की लेकिन स्टेयरिंग पकड़े होने के कारण उसने न तो सलमान की कॉल अटेंड की और न ही अपने पिता की कॉल रिसीव की। वारदात के इरादे से अल्ली खां रोड पर घूम रहा सलमान बार-बार कॉल कर उसकी लोकेशन जानना चाहता था। उसे इस बात की जानकारी थी कि कार सीखने के बाद शीबा साढ़े दस बजे घर लौटेगी। इसी बीच वह उसका काम तमाम कर देगा।
activenewsnetwork September 4, 2022 0
सरखेत में तो मदद, पर अन्य गांव अछूते
सरखेत के पीड़ितों को तो सरकारी इमदाद मिल रही, लेकिन उसके ऊपर के गांवों घनतूसेरा, फुलेत, टिहरी जिले के सीमांत गांव शिल्ला, कुमाल्डा, सीतापुर समेत सकलाना पट्टी में मदद तक नहीं पहुंच पाई है। बेघर सरकारी कैंप में हैं तो उनको दो वक्त की रोटियां मिल रही। आपदा आई तो प्रशासनिक टीम लगातार कई दिन राहत और बचाव कार्य में जुटी रही। आपदा के बाद की दुश्वारियों से निपटना तो फिलहाल आसान नहीं है। अधिकतर गांव देहरादून और अन्य जगहों से कट गए हैं। सड़क मार्ग से कटने के बाद रसद आदि के लिए भी ग्रामीणों को तरसना पड़ रहा है।
16 से 18 किमी पैदल दूरी नाप रहे ग्रामीण
बांदल घाटी में दून जिले के गांवों का मुख्यालय से संपर्क पूरी तरह कट चुका है। टिहरी जिले के सीमांत गांवों के निवासी भी दून के कई जगहों से अपनी जरूरतों को पूरी करते हैं। सड़क मार्ग क्षतिग्रस्त होने के बाद ग्रामीणों को 16 से 18 किमी पैदल चलकर शहर तक पहुंचना पड़ता है। साधन, संसाधन होने के बावजूद खाई बन चुके मार्ग से होकर गुजरना आपदा पीड़ितों के लिए बेहद कष्टकारी है। बुजुर्ग और मरीजों को आपातकाल में रस्सी या डंडी-कंडी के सहारे सड़क मार्ग तक पहुंचना पड़ रहा है।
निर्माण कार्य में चुनौती बना मलबे के पहाड़
बांदल घाटी में आपदा से उजड़ चुके गांवों की दशा सुधारना किसी चुनौती से कम नहीं है। 100 मीटर की दूरी पर एक जेसीबी या पोकलैंड लगी है, लेकिन पहाड़ से आए मलबे को हटाना आसान नहीं है। पोकलैंड नदी की धारा को दूसरी दिशा देने के प्रयास में जुटी हैं, लेकिन हर रोज जाने कहां से पानी का तेज बहाव आता है कि उनकी दिनभर की मेहनत बेकार चली जाती है। वहीं, सरखेत गांव के पूर्व प्रधान विजेंद्र सिंह पंवार का कहना है कि निर्माण कार्य के बजाए नुकसान ज्यादा हो रहा है।
पीड़ितों की जुबानी
पहाड़ काटकर फिर से नदी में डाला जा रहा है। इससे खतरा ग्रामीणों के सिर पर और बढ़ रहा, न कि कोई सुधार हो रहा है।
– सुमित्रा
प्रशासन अनभिज्ञ ठेकेदार के भरोसे रही तो अगली आपदा तेज बारिश के बाद फिर आएगी। पहाड़ काटकर मलबा गिराने की जगह जाल लगाया जाए।
– सुरेश कुमार
आवागमन की राह न होने से रसद भी पहुंचना मुश्किल हो गया है। ग्रामीण नदी की धारा के बहाव और बारिश का अंदाजा लगाकर पैदल दूरी नापते हैं और पीठ पर सामान लादकर पहाड़ चढ़ने को मजबूर हैं।
– करन सिंह पंवार
घनतूसेरा गांव के पास नदी में विलीन हो चुके खेत के पास बैठी उर्मिला पंवार, यशोदा, सुशीला कमली देवी का कहना है कि उन्हें पहले आसरे की जरूरत है। रोटी का जुगाड़ तो किसी न किसी तरह बन जाएगा।
गांव का निशान खोजता रहा प्रशासन
आपदा के तत्काल बाद घाटी में राहत और बचाव कार्य शुरू हुआ तो लगातार पांच दिन तक क्षेत्र में प्रशासनिक अमले और बचाव दल की भीड़ लगी रही। आपदा में सुरक्षित बच निकले ग्रामीण भी अपनों को बचाने में साथ लगे रहे। जब सब कुछ शांत हुआ तो सड़क, नेटवर्क और अन्य सुविधाओं से पूरी तरह कट चुके गांवों की सुध किसी ने नहीं ली। सरखेत के ऊपरी हिस्से में बसे गांव फुलेत और घनतूसेरा जैसे तोक और मजरों में हाल बेहाल है।
सुरक्षित आशियाना मिले तो फिर बसा लेंगे गांव
आपदा से तबाह बांदल घाटी में ग्रामीण शासन-प्रशासन से केवल सुरक्षित आशियाने की मांग कर रहे हैं। मालदेवता के शिव जूनियर हाईस्कूल में बने अस्थायी कैंप में रह रही 60 वर्षीय फिबला देवी और विनीता का कहना है कि उन्हें अगर रहने के लिए सुरक्षित जगह मिल जाए तो गांव को फिर से आबाद कर लेंगे। हालांकि, कड़ी मेहनत और पहाड़ में दुश्वारियों के चलते उनके यह दावे आसान नहीं हैं। तबाही का मंजर और अपनों को खोने के गम में रात-दिन काट रहीं महिलाएं फिर भी अपने दिन फिरने के इंतजार में हैं।
2014 के पीड़ितों के सहारे जल रहा सांझा चूल्हा
सरखेत गांव की पूजा का कहना है कि मौसी अनीता देवी का मकान रात के अंधेरे में आई आपदा के बीच मलबे में दफन हो गया। इसमें पांच जिंदगियां भी दफन हो गईं। अब उनका दिन मकान के अवशेष को सुधारने में कटता है। रात उन्हें ऊपरी इलाके में बसे 2014 के आपदा पीड़ित चमन सुरतवाण के घर गुजारनी पड़ती है। बताया कि पिता विजेंद्र सिंह और मां आपदा का दंश झेल चुके गांव के ही एक परिवार के साथ साझा चूल्हा जलाकर दो वक्त की रोटी खा रहे हैं।
अधर में लटके टिहरी जिले के सीमांत गांव
बांदल घाटी में नदी का एक छोर देहरादून जिले का है, तो वहीं दूसरे छोर तक टिहरी जिले के सीमांत गांव हैं। आपदा के बाद देहरादून के प्रशासनिक अमले ने अपने क्षेत्र के साथ ही टिहरी जिले के प्रभावित सीमांत गांवों में मदद की, लेकिन अब चूंकि टिहरी मुख्यालय से ये गांव काफी दूर हैं, लिहाजा अभी तक यहां के प्रशासनिक अमले की ओर से वैसी मदद नहीं की गई, जैसे दून प्रशासन ने की। सकलाना पट्टी से जुड़े दर्जनों गांवों में सैकड़ों की आबादी जरूरी सामग्री जुटाने के लिए संघर्ष कर रही है।
बोले ग्रामीण
टिहरी जनपद के सीमांत सिल्ला गांव के आशाराम काला और फुलेत के मूर्तिराम कंसवाल समेत आधा दर्जन ग्रामीणों ने बताया कि जब से आपदा आई, सरकार से मिली थोड़ी बहुत रसद से तो कुछ काम चला। अब उन्हें देहरादून के रायपुर तक पैदल चलकर आना पड़ता है। समूह में बाजार से सामान खरीदते हैं और फिर पैदल पहाड़ चढ़कर गांव आते हैं। रोजमर्रा की जरूरतें खेत में खड़ी फसलों और गाय, भैंस के दूध बेचकर पूरी होती हैं। मार्ग से कटने के बाद उनके सामने आर्थिक संकट खड़ा गया है। सीमांत क्षेत्र के कारण उनके जिले से भी प्रशासनिक मदद नहीं पहुंच पा रही है।
